Monday 30 December, 2013

कुत्तों की टोली



पटना में पिछले करीब चार सालों से मेरे काम पर जाने और आने का रास्ता नीयत है। (लगातार होने वाले बदलाव के बावजूद) इस रास्ते के किनारे की हर एक चीज से जैसे पहचान हो गई है। इसका फायदा दिन में तो नहीं, लेकिन देर रात घर लौटते समय मिलता है। कभी भी अकेलापन या डर नहीं महसूस होता। हां, एक बात और है कि करीब 6 किलोमीटर के रास्ते में मुझे करीब कुत्तों के चार-पांच अलग-अलग ग्रपों का इलाका पार करना होता है। कई लोगों के लिए कुछ ग्रुप परेशानी खड़ी कर देता है। लेकिन शुरूआती कुछ दिनों को छोड़ दें, तो अब मेरे साथ ऐसा नहीं होता। एक रात मैने देखा कि एक कुत्ते को कई कुत्ते मिलकर काट रहे थे। ये कोई नई बात नहीं थी। ऐसा मैंने कई बार देखा था। लेकिन काले रंग का यह कुत्ता सामान्य कुत्ते से देखने में लम्बा-चौड़ा और खूबसूरत था। लिहाजा मुझे याद रह गया। इसके बाद यह कुत्ता भी घर लौटते समय मुझे एक टोली में दिखने लगा। शायद इसमें रम गया था। करीब तीन चार रात बाद फिर उसी जगह पर एक दूसरे कुत्ते को कई कुत्ते खदेड़ रहे थे। खदेड़नेवाले कुत्तों में वह काला कुत्ता भी था। मुझे अजीब सा लगा। मैने इस बात की चर्चा अपने सहयोगियों से की। मेरे एक सहयोगी का जवाब था कि वहां भी हमारी (पत्रकारिता की) ही दुनिया का ही दस्तूर लागू है।

Tuesday 4 December, 2012

मुखौटा

दूबेजी खुश थे
चौबेजी को पहचान गये।
उनका साम्यवादी चेहरा 
महज मुखौटा है, जान गये। 
शोषण के खिलाफ आग उगलते हैं
दूसरों के हर निवाले पर निगाह रखते हैं। 
लेकिन दूबेजी खुश थे
कि चौबेजी को जान गये।
कुछ दिन बाद दूबेजी ने जाना
चौबेजी को नहीं था पहचाना।
धर्मनिरपेक्षता का चेहरा दूसरा मुखौटा है
चौबेजी ने नफासत से उसे लगा रखा है। 
दूबेजी खुश थे
इस बार चौबेजी को जान गये। 
कुछ दिन बाद ही पता चला
जाति विरोधी चौबेजी जाति की राजनीति करते हैं। 
इस बार दूबेजी खुश नहीं हुए
उन्हें लगा कि यहां कई चौबेजी हैं।
हर चौबे के पास कई मुखौटे हैं
वक्त के हिसाब से उसे पहन लेते हैं।

Wednesday 27 October, 2010

साहब का दंश

आफिस के एक बड़े साहब
मोम की गुडिया, जहर की पुडिया।
बुदापे का दर्द सालता है
अपने मूछों को हटा डालता है।
उम्र की दर से डरा यह आदमी
दूर करने अपनी अंदरूनी कमी,
सफ़ेद मुसली की जड़ मंगाता है
छोटी सी कली कोट में लगता है
हर किसी को मटुक और जुली का पाठ पढाता।


रंग बिरंगे कपड़ों में घूमते साहब की
आफिस में अलग ही शान है
हर अदा में नफासत है
खुद को कैसे साबित करें
इसका भी अच्छा ज्ञान है।
हुजूर कई पेशे की रोटी खा चुके हैं
जगह-जगह अपना हाथ आजमा चुके हैं
नहीं दल कहीं गली, प्रवचन करने लगे
अपनी वाणी से लोगों को मोहने लगे।
किसी ने कहा मीडिया में मूर्ख भरे हैं
आप यहाँ प्रवचन के फेर में पड़े हैं
आप की असल जरुरत वहां है
आप जैसा कोई दूसरा कहाँ है।
यहाँ आते ही जादू चला चला दिया
लोगों से ज्ञान का लोहा मना लिया
बाइट काटने की जरुरत पड़ी
टेप पर ही कैंची चला दिया।
बाद में कैंची का महत्व समझने लगे
गीता और कैंची साथ-साथ रखने लगे
जब किसी ने ज्ञान पर संदेह किया
कैंची चलाकर उसका पत्ता साफ कर दिया।
हुजूर की फितरत पुरानी है
पीछे भी एक लम्बी कहानी है
जहाँ जहाँ गए जलवा दिखाते रहे
जिसकी गोद में बैठे उसे मूंडा,
जिस नव पर चढ़े उसे डुबाते रहे।
हुजूर अपमान की घूंट पीते हैं
बेशर्मी की चादर में लिपटे
शानदार जिंदगी जीते हैं
मौका मिलते ही धीरे से
करैत की तरह डस लेते ।

( यह किसी एक हुजुर की कहानी नहीं है )
हर हाउस में ऐसे हुजूर पलते हैं
उनकी डर से हर आदमी
दहशत के साये में जीता है
कुछ कर दिखाने का सपना
दिल में ही मर जाता है।।


Sunday 24 October, 2010

मजबूरी

संवेदना की बातें करते करते
मेरी संवेदना कई बार मर चुकी है,
या फिर उसे बेचते बेचते
मेरी भावना भी बिक चुकी है

सड़क हादसे में घायल की तड़प
हमारे लिए खबर होती है,
हम ब्रेकिंग का इंतजार करते हैं
उसे खून की जरूरत होती है

घायल के परिजनों की नजरें
आस भरी हमारी ओर देखती हैं,
उन्हें हमारी सहायता की
तो हमें उनके विलाप की खोज होती है

हादसे से सहमा हुआ बच्चा
बाप की चुप्पी से परेशान है,
माँ कफ़न और कल की रोटी के लिए
तो हम खबरों की गिनती के लिए हलकान हैं




Wednesday 19 August, 2009

एडभरटोरियल की संस्कृति

मेरे एक मित्र ने फोन किया कि मिलने के लिए आ रहे हैं। मेरे यह मित्र पिछले एक साल से एक चैनल में रिपोर्टर हैं। बहुत खुशी हुई। मिलने पर वह भी बहुत खुश दिखे। अंदाजा था कि उनकी सैलरी में कोई इन्क्रीमेंट हुआ है। लेकिन शाम में वापस आने पर वह काफी परेशान दिखे। चैनल ने उन्हें ऐड पर भी ध्यान देने के लिए कहा था। या यूं कहें कि ऐड के बाद रिपोर्टिंग पर ध्यान देने के लिए कहा तो ज्यादे उचित होगा। इन्हें खुले शब्दों में कहा गया कि ऐड नहीं लाने पर कम्पनी उन्हें नहीं रख पाएगी। कम्पनी को रिपोर्टिंग में उनके परफॉरमेंस से कोई मतलब नहीं है।
लगभग चार साल पहले की बात है। मैं उस समय सहारा समय (बिहार/झारखंड) में स्ट्रिंगर था। मुजफ्फरपुर ब्यूरो में एक मीटिंग बुलायी गयी थी। नोएडा से बड़े-बड़े अधिकारी आये थे। उस मीटिंग में सारे स्ट्रिंगरों और रिपोर्टरों को एड लाने के लिए कहा गया था। शुभकामना संदेश के रूप में। और वह भी ऑप्शनल था।
हम लोग (कम से कम मैं) समझ नहीं पाये कि चैनल की इस पॉलिसी पर खुश हुआ जाए या दुःखी। उस समय मुजफ्फरपुर के ब्यूरो प्रमुख मनीष कुमार थे। मीटिंग के बाद उन्होंने दबी जुबान से कहा था कि यह सब अच्छा नहीं हो रहा है। अगर अभी इसका विरोध नहीं किया गया तो आने वाले समय में इसका बहुत बुरा परिणाम होगा। हालांकि मुजफ्फरपुर में ही एक रिपोर्टर थे- मुकेश कुमार, उन्होंने इसका विरोध किया था। और कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने सहारा समय छोड़ दिया।
धीरे-धीरे रिपोर्टरों पर ऐड लाने का दबाव बढ़ता गया। फिर रिपोर्टिंग के बदले ऐड कलेक्शन रिपोर्टरों की योग्यता का मानदंड बन गया। और एक के बाद एक करके यह परम्परा कई चैनलों में शुरू हो गयी।
पत्रकारिता में यह परम्परा कितनी सही है इसे यह पत्रकार अच्छे तरीके से बता सकता है, जो पहले एडिटोरियल संस्कृति में जी चुका है और अब उसे एडभरटोरियल संस्कृति में पत्रकारिता करनी पर रही है।

Saturday 15 August, 2009

क्या यही विरोध है ?

एक खबर आयी कि रांची में विश्व हिन्दू परिषद् के लोगों ने पाकिस्तान का झंडा और पुतला जलाया। यह एक साधारण सी खबर थी। कोई बहुत बड़ी घटना नहीं, जिसे मीडिया ज्यादे कवरेज दे पाये। लेकिन मुझे लगा कि इस खबर के पीछे एक बहुत बड़ी बात छुपी हुई है।

मुद्दे पर विरोध होता है। होना भी चाहिए। लेकिन किसी की भावनाओं को आहत करके नहीं। किसी के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाकर नहीं। किसी का पुतला जलाना विरोध का एक सिम्बॉलिक तरीका है । और सशक्त भी। झंडा आत्मसम्मान का प्रतीक होता है। वह सभी लोगों की भावनाओं से जुड़ा होता है। वैसे लोगों की भावनाओं से भी, जो वैचारिक स्तर पर हमारे विरोधी नहीं होते हैं। या फिर हमारी भावनाओं का सम्मान करने वाले होते हैं।

झंडा जलाने वालों के तर्क भी काफी मजबूत हैं। "पाकिस्तान में भी भारतीय तिरंगा जलाया जाता है।" लेकिन क्या हम भी वैचारिक स्तर पर उतने ही नीच (नीचे) हैं। हम दूसरे की भावनाओं का आदर क्यों नहीं करना चाहते हैं? कहीं खुद को भावुक दिखाने के लिए हमें यह नाटक (?) तो नहीं करना पड़ रहा है ? कहीं यह सस्ती लोकप्रियता पाने का आसान हथकंडा तो नहीं है?

हम अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए मरने मिटने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसे में दूसरों के आत्मसम्मान और भावनाओं का आदर करना क्या हमारा फर्ज नहीं बनता है ?