पटना में पिछले करीब चार सालों से मेरे काम पर जाने
और आने का रास्ता नीयत है। (लगातार होने वाले बदलाव
के बावजूद) इस रास्ते के किनारे की हर एक चीज से जैसे पहचान
हो गई है। इसका फायदा दिन में तो नहीं, लेकिन देर रात घर
लौटते समय मिलता है। कभी भी अकेलापन या डर नहीं महसूस होता। हां, एक बात और है कि करीब 6 किलोमीटर के रास्ते में
मुझे करीब कुत्तों के चार-पांच अलग-अलग ग्रुपों का इलाका पार
करना होता है। कई लोगों के लिए कुछ ग्रुप परेशानी खड़ी कर देता है। लेकिन शुरूआती कुछ
दिनों को छोड़ दें, तो अब मेरे साथ ऐसा नहीं होता। एक रात मैने देखा
कि एक कुत्ते को कई कुत्ते मिलकर काट रहे थे। ये कोई नई बात नहीं थी। ऐसा मैंने कई
बार देखा था। लेकिन काले रंग का यह कुत्ता सामान्य कुत्ते से देखने में लम्बा-चौड़ा और खूबसूरत था। लिहाजा मुझे याद रह गया। इसके बाद यह कुत्ता भी घर लौटते
समय मुझे एक टोली में दिखने लगा। शायद इसमें रम गया था। करीब तीन चार रात बाद फिर उसी
जगह पर एक दूसरे कुत्ते को कई कुत्ते खदेड़ रहे थे। खदेड़नेवाले कुत्तों में वह काला
कुत्ता भी था। मुझे अजीब सा लगा। मैने इस बात की चर्चा अपने सहयोगियों से की। मेरे
एक सहयोगी का जवाब था कि वहां भी हमारी (पत्रकारिता की) ही दुनिया का ही दस्तूर लागू है।
Monday, 30 December 2013
Subscribe to:
Posts (Atom)