एक खबर आयी कि रांची में विश्व हिन्दू परिषद् के लोगों ने पाकिस्तान का झंडा और पुतला जलाया। यह एक साधारण सी खबर थी। कोई बहुत बड़ी घटना नहीं, जिसे मीडिया ज्यादे कवरेज दे पाये। लेकिन मुझे लगा कि इस खबर के पीछे एक बहुत बड़ी बात छुपी हुई है।
मुद्दे पर विरोध होता है। होना भी चाहिए। लेकिन किसी की भावनाओं को आहत करके नहीं। किसी के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाकर नहीं। किसी का पुतला जलाना विरोध का एक सिम्बॉलिक तरीका है । और सशक्त भी। झंडा आत्मसम्मान का प्रतीक होता है। वह सभी लोगों की भावनाओं से जुड़ा होता है। वैसे लोगों की भावनाओं से भी, जो वैचारिक स्तर पर हमारे विरोधी नहीं होते हैं। या फिर हमारी भावनाओं का सम्मान करने वाले होते हैं।
झंडा जलाने वालों के तर्क भी काफी मजबूत हैं। "पाकिस्तान में भी भारतीय तिरंगा जलाया जाता है।" लेकिन क्या हम भी वैचारिक स्तर पर उतने ही नीच (नीचे) हैं। हम दूसरे की भावनाओं का आदर क्यों नहीं करना चाहते हैं? कहीं खुद को भावुक दिखाने के लिए हमें यह नाटक (?) तो नहीं करना पड़ रहा है ? कहीं यह सस्ती लोकप्रियता पाने का आसान हथकंडा तो नहीं है?
हम अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए मरने मिटने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसे में दूसरों के आत्मसम्मान और भावनाओं का आदर करना क्या हमारा फर्ज नहीं बनता है ?
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