Wednesday 19 August, 2009

एडभरटोरियल की संस्कृति

मेरे एक मित्र ने फोन किया कि मिलने के लिए आ रहे हैं। मेरे यह मित्र पिछले एक साल से एक चैनल में रिपोर्टर हैं। बहुत खुशी हुई। मिलने पर वह भी बहुत खुश दिखे। अंदाजा था कि उनकी सैलरी में कोई इन्क्रीमेंट हुआ है। लेकिन शाम में वापस आने पर वह काफी परेशान दिखे। चैनल ने उन्हें ऐड पर भी ध्यान देने के लिए कहा था। या यूं कहें कि ऐड के बाद रिपोर्टिंग पर ध्यान देने के लिए कहा तो ज्यादे उचित होगा। इन्हें खुले शब्दों में कहा गया कि ऐड नहीं लाने पर कम्पनी उन्हें नहीं रख पाएगी। कम्पनी को रिपोर्टिंग में उनके परफॉरमेंस से कोई मतलब नहीं है।
लगभग चार साल पहले की बात है। मैं उस समय सहारा समय (बिहार/झारखंड) में स्ट्रिंगर था। मुजफ्फरपुर ब्यूरो में एक मीटिंग बुलायी गयी थी। नोएडा से बड़े-बड़े अधिकारी आये थे। उस मीटिंग में सारे स्ट्रिंगरों और रिपोर्टरों को एड लाने के लिए कहा गया था। शुभकामना संदेश के रूप में। और वह भी ऑप्शनल था।
हम लोग (कम से कम मैं) समझ नहीं पाये कि चैनल की इस पॉलिसी पर खुश हुआ जाए या दुःखी। उस समय मुजफ्फरपुर के ब्यूरो प्रमुख मनीष कुमार थे। मीटिंग के बाद उन्होंने दबी जुबान से कहा था कि यह सब अच्छा नहीं हो रहा है। अगर अभी इसका विरोध नहीं किया गया तो आने वाले समय में इसका बहुत बुरा परिणाम होगा। हालांकि मुजफ्फरपुर में ही एक रिपोर्टर थे- मुकेश कुमार, उन्होंने इसका विरोध किया था। और कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने सहारा समय छोड़ दिया।
धीरे-धीरे रिपोर्टरों पर ऐड लाने का दबाव बढ़ता गया। फिर रिपोर्टिंग के बदले ऐड कलेक्शन रिपोर्टरों की योग्यता का मानदंड बन गया। और एक के बाद एक करके यह परम्परा कई चैनलों में शुरू हो गयी।
पत्रकारिता में यह परम्परा कितनी सही है इसे यह पत्रकार अच्छे तरीके से बता सकता है, जो पहले एडिटोरियल संस्कृति में जी चुका है और अब उसे एडभरटोरियल संस्कृति में पत्रकारिता करनी पर रही है।

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